भारत के संविधान को 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने अपनाया था और 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया था. संविधान सभा के सदस्य भारत के राज्यों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा चुने गए थे. इस सभा में डॉ राजेंद्र प्रसाद, डॉ॰ भीमराव अम्बेडकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद जैसे प्रमुख सदस्य थे. संविधान सभा ने संविधान के निर्माण के लिए 2 साल और 11 महीने की अवधि में 11 सत्रों में और 167 दिनों के दौरान बैठक की थी. संविधान सभा की बैठकों में प्रेस और जनता को भाग लेने की आज़ादी थी.
भारत का संविधान, भारतीय गणराज्य का सर्वोच्च कानून है. यह देश की राजनीतिक व्यवस्था के लिए रूपरेखा तैयार करता है और सरकार की संस्थाओं की शक्तियों और ज़िम्मेदारियों को परिभाषित करता है. संविधान में मौलिक अधिकारों की रक्षा के साथ-साथ शासन के सिद्धांतों को भी रेखांकित किया जाता है. यह देश के प्रशासन का मार्गदर्शन करने वाले नियमों और विनियमों का एक समूह भी है.
भारत के संविधान को 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने अपनाया था और यह 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ. इसे अपनाए जाने के समय, संविधान में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं और इसमें लगभग 145,000 शब्द थे. संविधान सभा को इसे बनाने में करीब तीन साल लगे थे. इस अवधि में, उन्होंने कुल 165 दिनों को कवर करते हुए ग्यारह सत्र आयोजित किए. इनमें से 114 दिन संविधान के मसौदे पर विचार करने में व्यतीत हुए. संविधान के प्रत्येक अनुच्छेद पर संविधान सभा के सदस्यों द्वारा बहस की गई थी.
संविधान में विभिन्न राजनीतिक दर्शन, नागरिकों के मूल अधिकार, नागरिकों के मूल कर्तव्य के अलावा विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का विभाजन इत्यादि कई प्रावधान शामिल हैं. संविधान के मूल आधार भारत सरकार अधिनियम 1935 को माना जाता है.
इसे 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा अंगीकृत किया गया था और यह 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। इसको अंगीकृत किये जाने के समय, संविधान में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियां थीं और इसमें लगभग 145,000 शब्द थे, जिससे यह अब तक का अंगीकृत किया जाने वाला सबसे लंबा राष्ट्रीय संविधान बन गया।
भारतीय संविधान की संरचना (Structure of the Indian Constitution)
भारतीय संविधान विश्व के सबसे लंबे एवं विस्तृत लिखित संविधानों में से एक है। भारतीय संविधान की संरचना के विभिन्न घटकों को इस प्रकार देखा जा सकता है:
- भाग (Parts): संविधान में “भाग” का तात्पर्य समान विषयों या प्रवृत्तियों से संबंधित अनुच्छेदों के समूह से है। भारतीय संविधान विभिन्न भागों में विभाजित है, प्रत्येक भाग देश के कानूनी, प्रशासनिक या सरकारी ढांचे के विशिष्ट पहलू से संबंधित है।
- मूल रूप से, भारतीय संविधान में 22 भाग थे।
- वर्तमान में, भारतीय संविधान में 25 भाग हैं।
- अनुच्छेद (Articles): “अनुच्छेद” संविधान के अंतर्गत एक विशिष्ट प्रावधान या खंड को संदर्भित करता है, जो देश के कानूनी और सरकारी ढांचे के विभिन्न पहलुओं का विवरण प्रदान करता है।
- संविधान के प्रत्येक भाग में क्रमानुसार क्रमांकित कई अनुच्छेद होते हैं।
- मूलत: भारतीय संविधान में 395 अनुच्छेद थे।
- वर्तमान में, भारतीय संविधान में 448 अनुच्छेद हैं।
- अनुसूचियाँ (Schedules) – “अनुसूची” संविधान से सम्बंधित एक सूची या तालिका को संदर्भित करती है जो संवैधानिक प्रावधानों से संबंधित कुछ अतिरिक्त जानकारी या दिशानिर्देशों का विवरण प्रदान करती है।
- अनुसूचियाँ स्पष्टता और पूरक विवरण प्रदान करती हैं, जिससे संविधान अधिक व्यापक और कार्यात्मक बन जाता है।
- मूल रूप से, भारत के संविधान में 8 अनुसूचियाँ थीं। वर्तमान में, भारतीय संविधान में 12 अनुसूचियाँ हैं।
भारतीय संविधान का अधिनियमन और अंगीकरण (Enactment and Adoption of the Indian Constitution)
- भारतीय संविधान का निर्माण 1946 में गठित एक संविधान सभा द्वारा किया गया था। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे।
- 29 अगस्त 1947 को संविधान सभा में भारत के स्थायी संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए एक प्रारुप समिति के गठन का प्रस्ताव रखा गया था। तदनुसार, डॉ. बी.आर. आंबेडकर की अध्यक्षता में प्रारुप समिति गठित की गई थी।
- प्रारुप समिति के द्वारा संविधान को तैयार करने में 2 वर्ष, 11 महीने और 18 दिनों का कुल समय लगा।
- कई विचार-विमर्श और कुछ संशोधनों के बाद, संविधान के प्रारुप को संविधान सभा द्वारा 26 नवंबर 1949 को पारित घोषित किया गया था। इसे भारत के संविधान की “अंगीकृत तिथि” के रूप में जाना जाता है।
- संविधान के कुछ प्रावधान 26 नवंबर 1949 को लागू हो गए थे। हालाँकि, संविधान का अधिकांश भाग 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ, जिससे भारत एक संप्रभु गणराज्य बन गया। इस तिथि को भारत के संविधान के “अधिनियमन तिथि” के रूप में जाना जाता है।
भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएँ
सबसे विस्तृत लिखित संविधान
भारतीय संविधान विश्व के सभी लिखित संविधानों में सबसे विस्तृत है। भारतीय संविधान के व्यापक और विस्तृत दस्तावेज होने में योगदान देने वाले कई कारक हैं, जैसे देश की विशाल विविधता को एकता में समायोजित करने की आवश्यकता, केंद्र और राज्यों दोनों के लिए एक ही संविधान, संविधान सभा में कानूनी विशेषज्ञों और जानकारों की उपस्थिति आदि।
विभिन्न स्रोतों से प्रेरित
भारतीय संविधान के अधिकाँश प्रावधान 1935 के भारत शासन अधिनियम के साथ-साथ विभिन्न अन्य देशों के संविधानों के प्रमुख प्रावधानों संशोधित करके भारतीय परिस्थितियों के अनुरुप अपनाया गया है।
कठोरता और लचीलेपन का मिश्रण
संविधानों को वर्गीकृत किया जाता है – कठोर (इसमें संशोधन के लिए एक विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है) और लचीला (इसमें सामान्य बहुमत से संशोधन किया जा सकता है )।
- भारतीय संविधान न तो कठोर है और न ही लचीला, बल्कि दोनों व्यवस्थाओं का एक मिश्रण है।
एकात्मकता के साथ संघीय प्रणाली
भारतीय संविधान सरकार की एक संघीय प्रणाली स्थापित करता है और इसमें संघ के सभी सामान्य लक्षण शामिल होते हैं।
- हालाँकि, इसमें बड़ी संख्या में एकात्मक या गैर-संघीय विशेषताएँ भी शामिल हैं।
संसदीय शासन प्रणाली
भारतीय संविधान ने ब्रिटिश संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया है। संसदीय प्रणाली विधायी और कार्यकारी अंगों के मध्य सहयोग और समन्वय के सिद्धांत पर आधारित है।
संसदीय संप्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता का समन्वय
भारत में संसदीय संप्रभुता और न्यायिक सर्वोच्चता के मध्य समन्वय स्थापित किया गया हैं, अर्थात् भारतीय संविधान में विधि के निर्माण के लिए विधायिका के अधिकार और संवैधानिक सिद्धांतों के आलोक में इन विधियों की समीक्षा और व्याख्या करने के लिए न्यायपालिका की शक्ति के मध्य एक संतुलन बनाया गया है।
- हालाँकि विधि बनाने का अंतिम अधिकार संसद को है, न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है तथा न्यायपालिका द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि संसदीय कार्य संवैधानिक मानदंडों के अनुसार हों तथा मौलिक अधिकारों की रक्षा के अनुरूप हों।
एकीकृत और स्वतंत्र न्यायपालिका
भारतीय संविधान के द्वारा देश में एक एकीकृत और स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली स्थापित की गई है।
- एक एकीकृत न्यायिक प्रणाली का अर्थ है कि न्यायालयों की एक एकल प्रणाली, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय शामिल हैं, जो केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा निर्मित कानूनों की संविधान की मूल अवसरंचना अनुरूप समीक्षा करती है।
- एक स्वतंत्र न्यायिक प्रणाली का अर्थ है कि भारतीय न्यायपालिका स्वायत्त रूप से संचालित होती है, जो सरकार की कार्यकारी और विधायी शाखाओं के प्रभाव से स्वतंत्र है।
मौलिक अधिकार
भारतीय संविधान में सभी नागरिकों को छह मौलिक अधिकारों की गारंटी प्रदान की गईं है, जिससे देश में राजनीतिक लोकतंत्र के विचार को बढ़ावा मिलता है। वे कार्यपालिका और विधायिका के मनमाने कानूनों के लागू होने से प्रतिबंधित करते हैं।
राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत
भारतीय संविधान में DPSP के रूप में सिद्धांतों का एक समूह शामिल है, जो उन आदर्शों को दर्शाते है जिन्हें राज्य को नीतियाँ और कानून बनाते समय ध्यान में रखना चाहिए।
- नीति-निर्देशक तत्त्व सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र के आदर्श को बढ़ावा देकर भारत में एक ‘कल्याणकारी राज्य‘ स्थापित करने का प्रयास करते हैं।
मौलिक कर्तव्य
मौलिक कर्तव्य भारतीय संविधान में उल्लिखित नैतिक और नागरिक दायित्वों का एक समूह है।
- ये कर्तव्य नागरिकों को एक मजबूत और सामंजस्यपूर्ण राष्ट्र बनाने की दिशा में योगदान करने के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करते हैं।
धर्मनिरपेक्ष राज्य
भारतीय संविधान किसी विशेष धर्म को भारतीय राज्य के आधिकारिक धर्म के रूप में नहीं मानता है। इसके बजाय, यह अनिवार्य करता है कि राज्य को सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए तथा किसी विशेष धर्म के पक्ष में या उसके विरुद्ध भेदभाव करने से परहेज करना चाहिए।
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार
भारतीय संविधान लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों के आधार के रूप में सार्वभौम वयस्क मताधिकार को अपनाता है।
- प्रत्येक नागरिक जो 18 वर्ष से कम आयु का नहीं है,उसे जाति, नस्ल, धर्म, लिंग, साक्षरता, धन आदि के आधार पर किसी भी भेदभाव के बिना वोट देने का अधिकार है।
एकल नागरिकता
एकल नागरिकता भारत में एक संवैधानिक सिद्धांत है जिसके तहत सभी नागरिकों को, चाहे वे किसी भी राज्य में पैदा हुए हों या रहते हों, पूरे देश में नागरिकता के समान राजनीतिक और नागरिक अधिकार प्राप्त हैं, और उनके बीच कोई भेदभाव नहीं किया जाता है।
स्वतंत्र निकाय
भारतीय संविधान ने कुछ स्वतंत्र निकायों की स्थापना की है जिन्हें भारत में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के रक्षक के रूप में परिकल्पित किया गया है।
आपातकालीन प्रावधान
भारतीय संविधान में राष्ट्रपति को किसी भी असाधारण स्थिति से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए आपातकालीन प्रावधान मौजूद हैं।
- इन प्रावधानों को शामिल करने का तर्क देश की संप्रभुता, एकता, अखंडता और सुरक्षा, लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रणाली और संविधान की रक्षा करना है।
त्रि-स्तरीय सरकार
त्रि-स्तरीय सरकार का अर्थ है सरकार की शक्तियों और दायित्वों को तीन स्तरों पर विभाजित किया जाता है – केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और स्थानीय सरकारें (पंचायतें और नगरपालिकाएं)।
- इस विकेंद्रीकृत प्रणाली के द्वारा क्षेत्रीय और स्थानीय मुद्दों को ध्यान में रखते हुए योजनाओं का निर्माण किया जाता है, जो भागीदारीपूर्ण लोकतंत्र और जमीनी स्तर के विकास को बढ़ावा देती है।
सहकारी समितियाँ
2011 के 97वें संविधान संशोधन अधिनियम ने सहकारी समितियों को संवैधानिक दर्जा और संरक्षण प्रदान किया।
भारतीय संविधान का महत्त्व
- विधि का शासन: संविधान विधि के शासन पर आधारित प्रशासन के लिए रुपरेखा स्थापित करता है, यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी व्यक्ति, सरकारी अधिकारियों सहित, विधि से ऊपर नहीं है।
- अधिकारों की सुरक्षा: यह नागरिकों को मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है, जैसे वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता आदि की रक्षा करता है, साथ ही साथ इन अधिकारों के उल्लंघन होने पर कानूनी निवारण के लिए तंत्र भी प्रदान करता है।
- सरकार की संरचना: संविधान सरकार की संरचना को चित्रित करता है, तथा सरकार के कार्यकारी, विधायी और न्यायिक शक्तियों और सीमाओं को परिभाषित करता है। शक्तियों के इस पृथक्करण के सिद्धांत से जांच और संतुलन को बढ़ावा मिलता है।
- लोकतांत्रिक सिद्धांत: सार्वभौम वयस्क मताधिकार जैसे प्रावधानों के माध्यम से संविधान निःशुल्क और निष्पक्ष चुनावों के माध्यम से शासन में नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करके लोकतांत्रिक सिद्धांतों को बनाए रखता है।
- स्थिरता और निरंतरता: संविधान शासन में स्थिरता और निरंतरता प्रदान करता है, जो क्रमिक सरकारों को मार्गदर्शन देने और राजनीतिक व्यवस्था में अचानक परिवर्तन को रोकने के लिए एक ढांचे के रूप में कार्य करता है।
- राष्ट्रीय एकता: भारतीय संविधान लोगों की विविधता को मान्यता प्रदान करता है तथा इस विविधता को ध्यान में रखते हुए विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा प्रोत्साहित किया जाता है, साथ ही राष्ट्र के प्रति सामान्य नागरिकता और निष्ठा की भावना को भी बढ़ावा दिया जाता है।
- कानूनी ढांचा: संविधान कानूनी आधार के रूप में कार्य करता है जिस पर सभी कानून और विनियम आधारित होते हैं, कानूनी प्रणाली में निरंतरता और सुसंगतता प्रदान करते हैं।
- अनुकूलनशीलता (Adaptability): एक स्थिर ढांचा प्रदान करते हुए, संविधान बदलती सामाजिक आवश्यकताओं और मूल्यों को समायोजित करने के लिए आवश्यक संशोधनों की भी अनुमति प्रदान करता है, जो समय के साथ इसकी प्रासंगिकता सुनिश्चित करता है।
भारत के संविधान के स्रोत
- 1935 का भारत सरकार अधिनियम – संघीय योजना, राज्यपाल का कार्यालय, न्यायपालिका, लोक सेवा आयोग, आपातकालीन प्रावधान और प्रशासनिक विवरण।
- ब्रिटिश संविधान – सरकार की संसदीय प्रणाली, विधि का शासन, विधायी प्रक्रिया, एकल नागरिकता, कैबिनेट प्रणाली, विशेषाधिकार रिट, संसदीय विशेषाधिकार और द्विसदनीय प्रणाली।
- अमेरिकी संविधान – मौलिक अधिकार, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, न्यायिक समीक्षा, राष्ट्रपति पर महाभियोग, सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाना और उपराष्ट्रपति का पद।
- आयरिश संविधान – राज्य के नीति निदेशक तत्त्व, राज्यसभा के लिए सदस्यों का मनोनयन और राष्ट्रपति के चुनाव की विधि।
- कनाडाई संविधान – एक मजबूत केंद्र के साथ संघ, केंद्र में अवशिष्ट शक्तियों का निहित होना, केंद्र द्वारा राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति और सर्वोच्च न्यायालय का सलाहकार क्षेत्राधिकार।
- ऑस्ट्रेलियाई संविधान – समवर्ती सूची, व्यापार, वाणिज्य और अंतर्व्यापार की स्वतंत्रता, और संसद के दोनों सदनों की संयुक्त बैठक।
- जर्मनी का वाइमर संविधान – आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों का निलंबन।
- सोवियत संविधान (USSR, वर्तमान में रूस)– प्रस्तावना में मौलिक कर्तव्य और न्याय का आदर्श (सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक)।
- फ्रांसीसी संविधान – गणतंत्र और प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के आदर्श।
- दक्षिण अफ़्रीकी संविधान – संविधान में संशोधन और राज्य सभा के सदस्यों के चुनाव की प्रक्रिया।
- जापानी संविधान – विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया।
भारतीय संविधान की विभिन्न अनुसूचियाँ
अनुसूची | विषय – वस्तु | विवरण |
अनुसूची I | राज्यों के नाम और उनका क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार एवं केंद्रशासित प्रदेशों के नाम और उनका विस्तार | – |
अनुसूची II | परिलब्धियाँ, भत्ते, विशेषाधिकार आदि से संबंधित प्रावधान | यह अनुसूची विभिन्न संवैधानिक पदाधिकारियों जैसे राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल आदि के वेतन का विवरण प्रस्तुत करता है। |
अनुसूची III | शपथ और प्रतिज्ञान के प्रपत्र | यह अनुसूची विभिन्न संवैधानिक गणमान्य व्यक्तियों जैसे सांसदों, विधायकों, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों आदि के लिए शपथ और प्रतिज्ञान के प्रपत्र प्रदान करती है। |
अनुसूची IV | राज्य सभा में सीटों का आवंटन | यह अनुसूची राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में राज्यसभा (राज्यों की परिषद) की सीटों का आवंटन निर्धारित करती है। |
अनुसूची V | अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन और नियंत्रण के संबंध में प्रावधान | – |
अनुसूची VI | असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों में जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में प्रावधान | – |
अनुसूची VII | संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची के अनुसार संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन। | वर्तमान में, संघ सूची में 100 विषय (मूल रूप से 97), राज्य सूची में 61 विषय (मूल रूप से 66) और समवर्ती सूची में 52 विषय (मूल रूप से 47) शामिल हैं। |
अनुसूची VIII | संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाएँ। | मूल रूप से इसमें 14 भाषाएँ थीं लेकिन वर्तमान में 22 भाषाएँ हैं जैसे असमिया, बंगाली, बोडो, गुजराती, हिंदी आदि। |
अनुसूची IX | संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त भाषाएँ। | मूल रूप से इसमें 14 भाषाएँ थीं लेकिन वर्तमान में 22 भाषाएँ हैं जैसे असमिया, बंगाली, बोडो, गुजराती, हिंदी आदि। |
अनुसूची IX | “यह अधिनियम राज्य विधानसभाओं के उन अधिनियमों और विनियमों से संबंधित है जो भूमि सुधार और जमींदारी प्रथा के उन्मूलन से जुड़े हैं, जबकि संसद अन्य मामलों से संबंधित है।” | यह अनुसूची 1951 के प्रथम संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ी गई थी, जो उन कानूनों को सरंक्षण प्रदान करती है जिन्हें मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है। |
अनुसूची X | दल-बदल के आधार पर संसद और राज्य विधानमंडलों के सदस्यों की अयोग्यता से संबंधित प्रावधान। | यह अनुसूची 1985 के 52वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ी गई थी, जिसे दल-बदल विरोधी कानून के रूप में भी जाना जाता है। |
अनुसूची XI | पंचायतों की शक्तियों, प्राधिकार और उत्तरदायित्वों के विषय में विवरण। | यह अनुसूची 1992 के 73वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ी गई थी। |
अनुसूची XII | नगर पालिकाओं की शक्तियों, प्राधिकार और उत्तरदायित्वों के विषय में विवरण। | यह अनुसूची 1992 के 74वें संशोधन अधिनियम द्वारा जोड़ी गई थी। |
संविधान के भाग
भाग (Parts) | विषय – वस्तु |
I | संघ और उसका क्षेत्र |
II | नागरिकता |
III | मौलिक अधिकार |
IV | राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व |
IV-A | मौलिक कर्तव्य |
V | संघ सरकार |
VI | राज्य सरकार |
VIII | केंद्र शासित प्रदेश |
IX | पंचायतें |
IX-A | नगर पालिकाएँ |
IX-B | सहकारी समितियाँ |
X | अनुसूचित एवं जनजातीय क्षेत्र |
XI | संघ एवं राज्यों के मध्य संबंध |
XII | वित्त, संपत्ति, अनुबंध और मुकदमे |
XIII | भारत के क्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य और अंतर्व्यापार |
XIV | संघ और राज्यों के अधीन सेवाएँ |
XIV-A | न्यायाधिकरण |
XV | चुनाव |
XVI | कुछ वर्गों से संबंधित विशेष प्रावधान |
XVII | राजभाषाएँ |
XVIII | आपातकाल | प्रावधान |
XIX | विविध |
XX | संविधान में संशोधन |
XXI | अस्थायी, संक्रमणकालीन एवं विशेष प्रावधान |
XXII | संक्षिप्त शीर्षक, प्रारंभ, हिंदी में आधिकारिक पाठ और निरसन |
नोट – भाग-VII (पहली अनुसूची के भाग B में राज्य), 1956 के 7वें संवैधानिक संशोधन द्वारा हटा दिया गया है।
निष्कर्षतः, भारतीय संविधान राष्ट्र के लोकतांत्रिक आदर्शों और आकांक्षाओं का प्रमाण है। इसका निर्माण सावधानीपूर्वक किया गया है, जो ऐतिहासिक संघर्षों और दूरदर्शी सिद्धांतों पर आधारित है, और यह भारत को एक अधिक न्यायपूर्ण, समावेशी और समृद्ध समाज की ओर ले जाने का मार्गदर्शन प्रदान करता है। भारतीय संविधान अपने मूल्यों को बनाए रखने, विविधता के बीच एकता को बढ़ावा देने और प्रत्येक नागरिक के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करने के लिए महत्त्वपूर्ण है, इस प्रकार यह आने वाली पीढ़ियों के लिए एक उज्जवल भविष्य सुनिश्चित करता है।
संबंधित अवधारणाएँ
- संविधानवाद – संविधानवाद एक ऐसी प्रणाली है जहां संविधान सर्वोच्च होता है और संस्थाओं की संरचना और प्रक्रियाएं संवैधानिक सिद्धांतों से संचालित होती हैं। यह एक ढांचा प्रदान करता है जिसके अंतर्गत राज्य को अपना कार्य संचालन करना पड़ता है। यह सरकार पर भी सीमाएँ आरोपित करते है।
- संविधानों का वर्गीकरण – दुनिया भर के संविधानों को निम्नलिखित श्रेणियों और उप-श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है:
भारत का संविधान क्या है?
भारत का संविधान देश का सर्वोच्च कानून है, जो इसके शासन ढांचे, अधिकारों और कर्तव्यों को रेखांकित करता है। यह भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित करता है, जो अपने नागरिकों के लिए न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व सुनिश्चित करता है।
भारत का संविधान कब अपनाया गया था?
भारत का संविधान 26 नवंबर 19 को अपनाया गया था, लेकिन भारतीय संविधान को 26 जनवरी , 1950 को लागू किया गया था।
भारतीय संविधान के ‘पिता’ के रूप में किसे जाना जाता है?
डॉ. बी.आर. आंबेडकर को भारतीय संविधान के “पिता” के रूप में जाना जाता है, क्योंकि उन्होंने प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई और भारतीय संविधान के प्रावधानों को आकार देने में उन्होनें महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
हम संविधान दिवस कब मनाते हैं?
हमारे देश में प्रत्येक वर्ष 26 नवंबर को भारत के संविधान को अपनाने के उपलक्ष्य में संविधान दिवस मनाया जाता है।
भारत के संविधान का दर्शन क्या है?
ECOSYSTEM
Positive growth.
Nature, in the common sense, refers to essences unchanged by man; space, the air, the river, the leaf. Art is applied to the mixture of his will with the same things, as in a house, a canal, a statue, a picture.
But his operations taken together are so insignificant, a little chipping, baking, patching, and washing, that in an impression so grand as that of the world on the human mind, they do not vary the result.
Undoubtedly we have no questions to ask which are unanswerable. We must trust the perfection of the creation so far, as to believe that whatever curiosity the order of things has awakened in our minds, the order of things can satisfy. Every man’s condition is a solution in hieroglyphic to those inquiries he would put.
मूल संरचना के सिद्धांत, भारतीय न्यायिक नवाचार की एक पहचान के रूप में, यह सुनिश्चित करता है कि भारत के संविधान के मूलभूत सिद्धांत निरंतर बने रहें, और इसके साथ ही संशोधनों के माध्यम से संविधान का तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार विकास भी होता रहें। परिवर्तन और निरंतरता के बीच जटिल परस्पर क्रियाओं के माध्यम से यह सिद्धांत सुनिश्चित करता है कि संविधान की आत्मा अछूती रहे। NEXT IAS का यह लेख मूल संरचना के सिद्धांत, इसके विकास, विशेषताओं, तत्त्वों, महत्त्व और आलोचनाओं को समझाने का प्रयास करता है।
- मूल संरचना के सिद्धांत का अर्थ
- भारतीय संविधान में मूल ढाँचे के सिद्धांत का विकास
- भारतीय संविधान के मूल संरचना के तत्त्व
- भारतीय संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत का महत्त्व
- मूल संरचना सिद्धांत की आलोचना (Criticism of the Basic Structure Doctrine)
- सामान्यत: पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
मूल संरचना के सिद्धांत का अर्थ
- भारतीय संविधान में मूल संरचना के सिद्धांत से तात्पर्य, संविधान की कुछ ऐसी मूलभूत विशेषताओं से है, जोकि अपरिवर्तनीय हैं और इन्हें संसद द्वारा संशोधित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।
- इस सिद्धांत के अनुसार, कोई भी संशोधन जो इन मूल विशेषताओं को बदलने या समाप्त करने का प्रयास करता है, उसे असंवैधानिक और शून्य माना जाता है। इस प्रकार, यह सिद्धांत संविधान में मनमाने या आमूलचूल परिवर्तनों के विरुद्ध सुरक्षा के रूप में कार्य करता है, जिससे इसकी स्थिरता, निरंतरता और मूल संवैधानिक मूल्यों का पालन सुनिश्चित होता है।
भारतीय संविधान में मूल ढाँचे के सिद्धांत का विकास
भारतीय संविधान में मूल संरचना के सिद्धांत स्पष्ट रूप से वर्णित नहीं है। यह वास्तव में एक न्यायिक सिद्धांत है, जो संसद की संशोधन शक्ति से संबंधित मामलों पर सर्वोच्च न्यायालय के कई निर्णयों के माध्यम से विकसित हुआ है।
अनुच्छेद 368 के तहत संसद द्वारा संविधान में संशोधन करने की शक्ति के दायरे को लेकर बहस 1951 में ही शुरू हो गई थी। इस मुद्दे ने विधायिका और न्यायपालिका के बीच टकराव की शुरूआत की, जो अंततः संविधान के मूल संरचना के सिद्धांत के विकास में परिणत हुई।
पिछले कुछ वर्षों में इस सिद्धांत के विकास को इस प्रकार देखा जा सकता है:
- शंकरी प्रसाद का मामला, 1951
- इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि अनुच्छेद 13 में ‘कानून’ शब्द में केवल सामान्य कानून शामिल हैं, न कि संविधान संशोधन अधिनियम।
- इस प्रकार, संसद संविधान संशोधन अधिनियम बनाकर किसी भी मौलिक अधिकार को समाप्त या कम कर सकती है।
- इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि अनुच्छेद 13 में ‘कानून’ शब्द में केवल सामान्य कानून शामिल हैं, न कि संविधान संशोधन अधिनियम।
- गोलक नाथ का मामला, 1967
- इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने पहले के रुख को पलट दिया और माना कि अनुच्छेद 13 में ‘कानून’ शब्द में संविधान संशोधन अधिनियम भी शामिल हैं।
- इसलिए, संसद संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से मौलिक अधिकार को समाप्त या कम नहीं कर सकती है।
- 24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971
- गोलक नाथ मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के जवाब में संसद ने 24वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1971 पारित किया, जिसने अनुच्छेद 13 और अनुच्छेद 368 में संशोधन किया।
- इसने घोषणा की कि संसद अनुच्छेद 368 के तहत संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से किसी भी मौलिक अधिकार को समाप्त या कम कर सकती है और ऐसे अधिनियम को अनुच्छेद 13 के अर्थ के तहत कानून नहीं माना जाएगा।
- केशवानंद भारती का मामला, 19733
- इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने 24वें संविधान संशोधन अधिनियम की वैधता को बनाए रखा और कहा कि संसद किसी भी मौलिक अधिकार को समाप्त या कम कर सकती है।
- हालाँकि, इसने संविधान के मूल संरचना का एक नया सिद्धांत निर्धारित किया, जिसके अनुसार, अनुच्छेद 368 के तहत संसद की संवेधानिक शक्ति इसे संविधान के ‘मूल ढांचे’ को बदलने में सक्षम नहीं बनाती है।
- इस प्रकार, इस निर्णय की घोषणा के बाद कुल मिलाकर स्थिति यह है कि संसद किसी मौलिक अधिकार को समाप्त या कम नहीं कर सकती है जो संविधान के ‘मूल ढांचे’ का हिस्सा है।
- 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1976
- न्यायपालिका द्वारा प्रतिपादित मूल संरचना के नए सिद्धांत के जवाब में, संसद ने 1976 में 42वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया।
- इस अधिनियम ने अनुच्छेद 368 में संशोधन किया और यह घोषित किया कि संसद की संविधान संशोधन शक्ति पर कोई सीमा नहीं है।
- इसके अनुसार, मौलिक अधिकारों के उल्लंघन सहित किसी भी आधार पर किसी भी संशोधन को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
- मिनर्वा मिल्स केस, 1980
- इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने 1976 के 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के उपरोक्त प्रावधान को इस आधार पर अमान्य कर दिया कि इसमें न्यायिक समीक्षा को शामिल नहीं किया गया है, जो संविधान की ‘मूल विशेषता‘ है।
- वामन राव का मामला (Waman Rao Case, 1981)
- इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने मूल संरचना के सिद्धांत का पालन किया और स्पष्ट किया कि यह केशवानंद भारती मामले के निर्णय की तिथि अर्थात् 24 अप्रैल, 1973 के बाद अधिनियमित सभी संविधान संशोधन अधिनियमों पर लागू होगा।
- वर्तमान स्थिति
- इस प्रकार, वर्तमान स्थिति यह है कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद संविधान के किसी भी हिस्से में संशोधन कर सकती है, जिसमें मौलिक अधिकार भी शामिल हैं, लेकिन संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित किए बिना।
भारतीय संविधान के मूल संरचना के तत्त्व
सर्वोच्च न्यायालय ने अभी तक यह परिभाषित नहीं किया है कि “मूल संरचना” क्या है। अभी तक विभिन्न निर्णयों के माध्यम से मूल संरचना के तत्त्वों को विकसित किया जा रहा है। भारतीय संविधान के मूल संरचना के कुछ प्रमुख तत्त्व इस प्रकार हैं:
- संविधान की सर्वोच्चता
- भारतीय राज्य का स्वतंत्र, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक स्वरूप
- संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र
- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों का पृथक्करण
- संघीय ढांचा
- राष्ट्र की एकता और अखंडता
- कल्याणकारी राज्य (सामाजिक-आर्थिक न्याय)
- न्यायिक समीक्षा
- व्यक्ति की स्वतंत्रता और गरिमा
- संसदीय प्रणाली
- कानून का शासन
- मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशों के बीच सामंजस्य और संतुलन
- समानता का सिद्धांत
- स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव
- न्यायपालिका की स्वतंत्रता
- संविधान में संशोधन करने की संसद की सीमित शक्ति
- न्याय तक प्रभावी पहुंच
- मौलिक अधिकारों के अंतर्निहित सिद्धांत (या सार)
- अनुच्छेद 32, 136, 141 और 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियां
- अनुच्छेद 226 और 227 के तहत उच्च न्यायालयों की शक्तियां
भारतीय संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत का महत्त्व
संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत भारत के संवैधानिक ढांचे में सर्वोच्च महत्त्व रखता है। इसके महत्त्व को इस प्रकार समझा जा सकता है:
- संविधान की अखंडता बनाए रखना (Preserves Constitutional Integrity): यह सिद्धांत संविधान के लचीलेपन की आवश्यकता और संविधान की मूलभूत अखंडता एवं पहचान बनाए रखने की अनिवार्यता के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह संवैधानिक व्यवस्था की अखंडता और स्थिरता बनाए रखने में मदद करता है।
- संविधान की सर्वोच्चता बनाए रखना (Maintains Supremacy of the Constitution): यह सिद्धांत इस सिद्धांत को बनाए रखता है कि संविधान सर्वोच्च है और यह देश का सर्वोच्च कानून है।
- संवैधानिक नैतिकता को बनाए रखना (Upholds Constitutional Morality): यह संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांतों को बनाए रखता है और सुनिश्चित करता है कि संविधान संशोधन न्याय, समानता और निष्पक्षता के व्यापक मूल्यों का पालन करते हैं।
- अधिनायकवाद को रोकना (Prevents Authoritarianism): यह सिद्धांत लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म करने या संवैधानिक मानदंडों को कमजोर करने की अधिनायकवादी प्रवृत्तियों के खिलाफ एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है।
- स्थिरता और निरंतरता सुनिश्चित करना (Ensures Stability and Consistency): यह सिद्धांत संविधान में निरंतर और आमूल परिवर्तन को रोकता है जो शासन को बाधित कर सकता है, जिससे कानूनी व्यवस्था की स्थिरता और निरंतरता भी बाधित होती है।
- लोकतंत्र की रक्षा करना (Protects Democracy): संविधान के ‘मूलभूत स्वरूप’ के रूप में लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करके, यह सुनिश्चित करता है कि भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य बना रहे।
- मौलिक अधिकारों की रक्षा करना (Protects Fundamental Rights): मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखकर, यह सिद्धांत व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करता है और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है।
- न्यायिक समीक्षा को बढ़ावा देना (Promotes Judicial Review): यह सिद्धांत न्यायपालिका को संविधान संशोधनों की समीक्षा करने का अधिकार देता है, साथ ही संविधान के संरक्षक के रूप में अपनी भूमिका को बढ़ाता है और कानून के शासन को बढ़ावा देता है।
मूल संरचना सिद्धांत की आलोचना (Criticism of the Basic Structure Doctrine)
जहाँ भारतीय संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत ने संविधान की अखंडता एवं मूलभूत सिद्धांतों की रक्षा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, वहीं निम्नलिखित आधारों पर इनकी आलोचना भी हुई है:
- संवैधानिक आधारों का अभाव(Lack of Constitutional Basis): एक आम आलोचना यह है कि यह सिद्धांत संविधान के किसी स्पष्ट प्रावधान द्वारा समर्थित नहीं है।
- स्पष्टता का अभाव (Lack of Clarity): इस सिद्धांत में इसके तत्त्वों के बारे में सटीक परिभाषा और स्पष्टता का अभाव है। यह अस्पष्टता न्यायिक विवेक और व्याख्या का द्वार खोल देती है, जिससे इसके अनुप्रयोग में अनिश्चितता और असंगति पैदा होती है।
- अंतर्निहित विषयपरकता (Subjectivity): मूल संरचना क्या है इसका निर्धारण स्वाभाविक रूप से व्यक्तिपरक होता है और अलग-अलग न्यायाधीशों की व्याख्याओं के आधार पर भिन्न होता है, जिससे न्यायपालिका के विभिन्न पीठों द्वारा परस्पर विरोधाभासी निर्णय हो सकते हैं।
- न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism): आलोचकों का तर्क है कि मूल संरचना सिद्धांत न्यायपालिका में अत्यधिक शक्ति निहित करता है, जिससे न्यायाधीशों को न्यायिक सक्रियता में शामिल होने और संविधान संशोधनों के बारे में व्यक्तिपरक निर्धारण हो सकता है। उनका मानना है कि संविधान की व्याख्या करना और यह तय करना कि कौन से प्रावधान मूल संरचना का हिस्सा हैं, यह विधायिका का काम है, न्यायपालिका का नहीं।
- शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन (Violation of Separation of Powers): न्यायपालिका को संसद की विधायी और घटक शक्ति में हस्तक्षेप करने की अनुमति देकर, यह शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
- अलोकतांत्रिक प्रकृति (Undemocratic Nature): कुछ मामलों में, यह सिद्धांत अलोकतांत्रिक प्रथाओं को जन्म देता है क्योंकि यह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों द्वारा लिए गए फैसलों को अनिर्वाचित न्यायाधीशों को पलटने की अनुमति देता है। ।
- संवैधानिक विकास को बाधित करना (Stifling Constitutional Evolution): विधायिका की संविधान संशोधन शक्ति पर कठोर प्रतिबंध लगाकर, यह सिद्धांत बदलती सामाजिक जरूरतों के अनुसार नई चुनौतियों और परिस्थितियों के जवाब में संविधान के विकास को बाधित कर सकता है।
संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत संवैधानिक न्यायशास्त्र की आधारशिला है, जो संविधान में निहित मौलिक सिद्धांतों और मूल्यों के संरक्षण के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है। यह भारतीय न्यायपालिका की दूरदृष्टिपूर्ण सोच का प्रमाण है जो संविधान के मूलभूत सिद्धांतों को मनमाने परिवर्तनों से सुरक्षित रखता है।
सामान्यत: पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
भारतीय संविधान का मूल ढांचा क्या है?
भारतीय संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत भारतीय न्यायपालिका द्वारा स्थापित उस सिद्धांत को संदर्भित करता है, जिसके अनुसार संविधान के कुछ मूल सिद्धांत और विशेषताएं अनुल्लंघनीय हैं और इन्हें संसद द्वारा संशोधित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता है।
भारत का संविधान पढ़ें
अनुच्छेद 368
अनुच्छेद 368: संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया
अनुच्छेद 44
भाग IV राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत
अनुच्छेद 44: नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता
अनुच्छेद 22
अनुच्छेद 22: कुछ मामलों में गिरफ्तारी और नजरबंदी से संरक्षण
अनुच्छेद 368
अनुच्छेद 368: संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया
अनुच्छेद 44
भाग IV राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत
अनुच्छेद 44: नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता
अनुच्छेद 22
अनुच्छेद 22: कुछ मामलों में गिरफ्तारी और नजरबंदी से संरक्षण
अनुच्छेद 368
अनुच्छेद 368: संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया
संविधान सभा की बहस चली
खंड 7
36 बहसें
04 नवम्बर 1948 – 08 जनवरी 1949इस पुस्तक में नवंबर 1948 से जनवरी 1949 तक हुई 36 बैठकों का विवरण है। पहली बैठक, जो 4 नवंबर 1948 को हुई थी, संविधान सभा के काम का एक महत्वपूर्ण क्षण था। बीआर अंबेडकर ने संविधान सभा के समक्ष भारत के संविधान का मसौदा प्रस्तुत किया और एक ऐतिहासिक भाषण दिया।
ऐतिहासिक संविधान
अनुसूचित जातियों की राजनीतिक मांगें 1944 (एससीएफ)
अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ (एससीएफ) के संस्थापक बीआर अंबेडकर ने 1945 में अपनी पुस्तक ‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के साथ क्या किया’ में इस दस्तावेज को जोड़ा था। इस दस्तावेज में एससीएफ की कार्यसमिति द्वारा पारित प्रस्तावों की एक श्रृंखला शामिल है, जिसमें अनुसूचित जाति समुदाय के लिए संवैधानिक सुरक्षा की मांग की गई थी।
समिति की रिपोर्ट
मौलिक अधिकारों पर उप-समिति की रिपोर्ट
16 अप्रैल 1947
यह रिपोर्ट हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों के अध्याय का पहला संस्करण थी। इसमें समानता, स्वतंत्रता, धर्म और संवैधानिक उपचारों के अधिकारों सहित 45 अनुच्छेद शामिल थे।
भारतीय संवैधानिक इतिहास अभिलेखागार में खोजें
हमारे मजबूत सर्च इंजन के साथ भारत के संविधान के आकर्षक इतिहास का अन्वेषण करें। हमारे व्यापक डेटाबेस में 1874 से 1950 तक की सावधानीपूर्वक टैग की गई और संपादित की गई प्राथमिक सामग्रियाँ शामिल हैं, जिनमें भारतीय संविधान सभा की पूर्ण बहस और समिति की रिपोर्ट, ऐतिहासिक संविधान और भारत का संविधान 1950 शामिल हैं। शक्तिशाली खोज फ़िल्टर और सॉर्टिंग विकल्पों के साथ, आप इन सामग्रियों के साथ रोमांचक नए तरीकों से जुड़ सकते हैं जो भारत के संवैधानिक मूल के बारे में खोज, अंतर्दृष्टि और विश्लेषण को बढ़ावा देते हैं।
जानें कैसे बना भारतीय संविधान
चरणों
भारत के संविधान का अधिनियमन और अंगीकरण
26 जनवरी 1950
चरण 10
संविधान सभा का पहला सत्र
13 दिसंबर 1946 – 22 जनवरी 1947
प्रथम चरण
समिति चरण और संविधान सभा की बहस का दूसरा सत्र
27 फ़रवरी 1947 – 30 अगस्त 1947
चरण 2
संवैधानिक सलाहकार द्वारा संविधान का मसौदा
01 फ़रवरी 1947 – 31 अक्टूबर 1947
चरण 3
संविधान का पहला मसौदा
27 अक्टूबर 1947 – 21 फ़रवरी 1948
चरण 4
प्रथम ड्राफ्ट का सार्वजनिक प्रसार
21 फ़रवरी 1948 – 26 अक्टूबर 1948
चरण 5
संविधान के प्रारूप पर बहस
4 नवंबर 1948
चरण 6
संविधान के प्रारूप का दूसरा वाचन
14 नवंबर 1948 – 17 अक्टूबर 1949
चरण 7
संविधान के प्रारूप का संशोधन
चरण 8
संविधान के प्रारूप का तीसरा वाचन
14 नवम्बर 1949 – 26 नवम्बर 1949
चरण 9
भारत के संविधान का अधिनियमन और अंगीकरण
26 जनवरी 1950
चरण 10
संविधान सभा का पहला सत्र
13 दिसंबर 1946 – 22 जनवरी 1947
प्रथम चरण
समिति चरण और संविधान सभा की बहस का दूसरा सत्र
27 फ़रवरी 1947 – 30 अगस्त 1947
चरण 2
संवैधानिक सलाहकार द्वारा संविधान का मसौदा
01 फ़रवरी 1947 – 31 अक्टूबर 1947
चरण 3
संविधान का पहला मसौदा
27 अक्टूबर 1947 – 21 फ़रवरी 1948
चरण 4
प्रथम ड्राफ्ट का सार्वजनिक प्रसार
21 फ़रवरी 1948 – 26 अक्टूबर 1948
चरण 5
संविधान के प्रारूप पर बहस
4 नवंबर 1948
चरण 6
संविधान के प्रारूप का दूसरा वाचन
14 नवंबर 1948 – 17 अक्टूबर 1949
चरण 7
संविधान के प्रारूप का संशोधन
चरण 8
संविधान के प्रारूप का तीसरा वाचन
14 नवम्बर 1949 – 26 नवम्बर 1949
चरण 9
भारत के संविधान का अधिनियमन और अंगीकरण
26 जनवरी 1950
चरण 10
संस्थान
संविधान सभा
संविधान निर्माण की प्रक्रिया संविधान सभा के विचार-विमर्श के इर्द-गिर्द आयोजित की गई थी। 9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा पहली बार बैठी। 2 साल और 11 महीने की अवधि में इसने भारत के संविधान को तैयार करने का अपना कार्य पूरा किया। इस अवधि के दौरान संविधान सभा के 11 सत्र हुए और कुल 167 दिनों तक बैठक हुई।
लोग
संविधान सभा के सदस्य
पी. कक्कन
1909 – 1981
संविधान सभा के सदस्य
दक्षायनी वेलायुधन
1912 – 1978
संविधान सभा के सदस्य
जगजीवन राम
1908 – 1986
संविधान सभा के सदस्य
पी. कक्कन
1909 – 1981
संविधान सभा के सदस्य
दक्षायनी वेलायुधन
1912 – 1978
संविधान सभा के सदस्य
जगजीवन राम
1908 – 1986
संविधान सभा के सदस्य
पी. कक्कन
1909 – 1981
भारत के संविधान से संबंधित विचारों और अंतर्दृष्टि से जुड़ें
राष्ट्रपति की अध्यादेश शक्तियों पर संविधान सभा की चिंताएं
22 मई 2023 • सिद्धार्थ झा द्वारा
पिछले शुक्रवार को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी कर सुप्रीम कोर्ट के एक महत्वपूर्ण फैसले को पलट दिया। क्या हमारे संविधान निर्माताओं का इरादा था कि अध्यादेश की शक्तियों का इस तरह से इस्तेमाल किया जाए?2 मिनट
भारत गणराज्य की स्थापना: निरंतरता या सभ्यता से प्रस्थान?
1 जून 2023 • विनीत कृष्णा द्वारा
नई संसद के उद्घाटन के दौरान सेंगोल समारोह भारत की स्थापना को उसकी सभ्यतागत विरासत की निरंतरता के रूप में दर्शाने का एक प्रयास था। क्या संस्थापकों ने भारत के परिवर्तन को इसी तरह देखा था?4 मिनट
वीडियो
ConstitutionofIndia.net 3.0 में आपका स्वागत है!
सीएलपीआर ट्रस्ट
14 अप्रैल, 2023
स्वतंत्र भारत का पहला बजट
सीएलपीआर ट्रस्ट
7 फ़रवरी, 2023
पॉडकास्ट
भारत के संविधान का निर्माण
पॉडकास्ट2 एपिसोड
संविधान संग्रहालय
1946 | बी.आर. अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति पर टिप्पणी
ऑडियो
1947 | हंसा जीवराज मेहता का भारत के राष्ट्रीय ध्वज को प्रस्तुत करते हुए भाषण
ऑडियो
1946 | जयपाल सिंह मुंडा ने राजेंद्र प्रसाद को विधानसभा का अध्यक्ष चुने जाने पर बधाई दी
ऑडियो
घटनाक्रम
कॉनक्वेस्ट 2023 का समापन हुआ। गोवा यूनिवर्सिटी चैंपियन बनी
रामाय्या कॉलेज ऑफ लॉ
इवेंट रिपोर्ट
25 नवंबर2023
आईआईटी मद्रास ने कॉनक्वेस्ट 2023 का दक्षिण क्षेत्रीय चैंपियन जीता। अगला पड़ाव, राष्ट्रीय चैंपियनशिप
क्राइस्ट (मान्य विश्वविद्यालय)
इवेंट रिपोर्ट
27 अक्टूबर2023
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी ने नॉर्थ रीजन कॉनक्वेस्ट क्विज़ 2023 में बड़ी जीत हासिल की
राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, दिल्ली
इवेंट रिपोर्ट
21 अक्टूबर2023
नेशनल कॉन्स्टिट्यूशन सोसाइटी (एनसीएस) पूरे भारत में स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्र समूहों का एक कॉन्स्टिट्यूशनऑफइंडिया.नेट संचालित नेटवर्क है, जो एक जीवंत संविधान संस्कृति के निर्माण और उसे बनाए रखने की दिशा में काम करता है।
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अनुच्छेद 368
अनुच्छेद 368: संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया
अनुच्छेद 44
भाग IV राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत
अनुच्छेद 44: नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता
अनुच्छेद 22
अनुच्छेद 22: कुछ मामलों में गिरफ्तारी और नजरबंदी से संरक्षण
अनुच्छेद 368
अनुच्छेद 368: संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया
अनुच्छेद 44
भाग IV राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत
अनुच्छेद 44: नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता
अनुच्छेद 22
अनुच्छेद 22: कुछ मामलों में गिरफ्तारी और नजरबंदी से संरक्षण
अनुच्छेद 368
अनुच्छेद 368: संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति और इसके लिए प्रक्रिया
संविधान सभा की बहस चली
खंड 7
36 बहसें
04 नवम्बर 1948 – 08 जनवरी 1949इस पुस्तक में नवंबर 1948 से जनवरी 1949 तक हुई 36 बैठकों का विवरण है। पहली बैठक, जो 4 नवंबर 1948 को हुई थी, संविधान सभा के काम का एक महत्वपूर्ण क्षण था। बीआर अंबेडकर ने संविधान सभा के समक्ष भारत के संविधान का मसौदा प्रस्तुत किया और एक ऐतिहासिक भाषण दिया।
ऐतिहासिक संविधान
अनुसूचित जातियों की राजनीतिक मांगें 1944 (एससीएफ)
अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ (एससीएफ) के संस्थापक बीआर अंबेडकर ने 1945 में अपनी पुस्तक ‘कांग्रेस और गांधी ने अछूतों के साथ क्या किया’ में इस दस्तावेज को जोड़ा था। इस दस्तावेज में एससीएफ की कार्यसमिति द्वारा पारित प्रस्तावों की एक श्रृंखला शामिल है, जिसमें अनुसूचित जाति समुदाय के लिए संवैधानिक सुरक्षा की मांग की गई थी।
समिति की रिपोर्ट
मौलिक अधिकारों पर उप-समिति की रिपोर्ट
16 अप्रैल 1947
यह रिपोर्ट हमारे संविधान के मौलिक अधिकारों के अध्याय का पहला संस्करण थी। इसमें समानता, स्वतंत्रता, धर्म और संवैधानिक उपचारों के अधिकारों सहित 45 अनुच्छेद शामिल थे।
भारतीय संवैधानिक इतिहास अभिलेखागार में खोजें
हमारे मजबूत सर्च इंजन के साथ भारत के संविधान के आकर्षक इतिहास का अन्वेषण करें। हमारे व्यापक डेटाबेस में 1874 से 1950 तक की सावधानीपूर्वक टैग की गई और संपादित की गई प्राथमिक सामग्रियाँ शामिल हैं, जिनमें भारतीय संविधान सभा की पूर्ण बहस और समिति की रिपोर्ट, ऐतिहासिक संविधान और भारत का संविधान 1950 शामिल हैं। शक्तिशाली खोज फ़िल्टर और सॉर्टिंग विकल्पों के साथ, आप इन सामग्रियों के साथ रोमांचक नए तरीकों से जुड़ सकते हैं जो भारत के संवैधानिक मूल के बारे में खोज, अंतर्दृष्टि और विश्लेषण को बढ़ावा देते हैं।
जानें कैसे बना भारतीय संविधान
चरणों
भारत के संविधान का अधिनियमन और अंगीकरण
26 जनवरी 1950
चरण 10
संविधान सभा का पहला सत्र
13 दिसंबर 1946 – 22 जनवरी 1947
प्रथम चरण
समिति चरण और संविधान सभा की बहस का दूसरा सत्र
27 फ़रवरी 1947 – 30 अगस्त 1947
चरण 2
संवैधानिक सलाहकार द्वारा संविधान का मसौदा
01 फ़रवरी 1947 – 31 अक्टूबर 1947
चरण 3
संविधान का पहला मसौदा
27 अक्टूबर 1947 – 21 फ़रवरी 1948
चरण 4
प्रथम ड्राफ्ट का सार्वजनिक प्रसार
21 फ़रवरी 1948 – 26 अक्टूबर 1948
चरण 5
संविधान के प्रारूप पर बहस
4 नवंबर 1948
चरण 6
संविधान के प्रारूप का दूसरा वाचन
14 नवंबर 1948 – 17 अक्टूबर 1949
चरण 7
संविधान के प्रारूप का संशोधन
चरण 8
संविधान के प्रारूप का तीसरा वाचन
14 नवम्बर 1949 – 26 नवम्बर 1949
चरण 9
भारत के संविधान का अधिनियमन और अंगीकरण
26 जनवरी 1950
चरण 10
संविधान सभा का पहला सत्र
13 दिसंबर 1946 – 22 जनवरी 1947
प्रथम चरण
समिति चरण और संविधान सभा की बहस का दूसरा सत्र
27 फ़रवरी 1947 – 30 अगस्त 1947
चरण 2
संवैधानिक सलाहकार द्वारा संविधान का मसौदा
01 फ़रवरी 1947 – 31 अक्टूबर 1947
चरण 3
संविधान का पहला मसौदा
27 अक्टूबर 1947 – 21 फ़रवरी 1948
चरण 4
प्रथम ड्राफ्ट का सार्वजनिक प्रसार
21 फ़रवरी 1948 – 26 अक्टूबर 1948
चरण 5
संविधान के प्रारूप पर बहस
4 नवंबर 1948
चरण 6
संविधान के प्रारूप का दूसरा वाचन
14 नवंबर 1948 – 17 अक्टूबर 1949
चरण 7
संविधान के प्रारूप का संशोधन
चरण 8
संविधान के प्रारूप का तीसरा वाचन
14 नवम्बर 1949 – 26 नवम्बर 1949
चरण 9
भारत के संविधान का अधिनियमन और अंगीकरण
26 जनवरी 1950
चरण 10
संस्थान
संविधान सभा
संविधान निर्माण की प्रक्रिया संविधान सभा के विचार-विमर्श के इर्द-गिर्द आयोजित की गई थी। 9 दिसंबर 1946 को संविधान सभा पहली बार बैठी। 2 साल और 11 महीने की अवधि में इसने भारत के संविधान को तैयार करने का अपना कार्य पूरा किया। इस अवधि के दौरान संविधान सभा के 11 सत्र हुए और कुल 167 दिनों तक बैठक हुई।
लोग
संविधान सभा के सदस्य
पी. कक्कन
1909 – 1981
संविधान सभा के सदस्य
दक्षायनी वेलायुधन
1912 – 1978
संविधान सभा के सदस्य
जगजीवन राम
1908 – 1986
संविधान सभा के सदस्य
पी. कक्कन
1909 – 1981
संविधान सभा के सदस्य
दक्षायनी वेलायुधन
1912 – 1978
संविधान सभा के सदस्य
जगजीवन राम
1908 – 1986
संविधान सभा के सदस्य
पी. कक्कन
1909 – 1981
भारत के संविधान से संबंधित विचारों और अंतर्दृष्टि से जुड़ें
राष्ट्रपति की अध्यादेश शक्तियों पर संविधान सभा की चिंताएं
22 मई 2023 • सिद्धार्थ झा द्वारा
पिछले शुक्रवार को राष्ट्रपति ने एक अध्यादेश जारी कर सुप्रीम कोर्ट के एक महत्वपूर्ण फैसले को पलट दिया। क्या हमारे संविधान निर्माताओं का इरादा था कि अध्यादेश की शक्तियों का इस तरह से इस्तेमाल किया जाए?2 मिनट
भारत गणराज्य की स्थापना: निरंतरता या सभ्यता से प्रस्थान?
1 जून 2023 • विनीत कृष्णा द्वारा
नई संसद के उद्घाटन के दौरान सेंगोल समारोह भारत की स्थापना को उसकी सभ्यतागत विरासत की निरंतरता के रूप में दर्शाने का एक प्रयास था। क्या संस्थापकों ने भारत के परिवर्तन को इसी तरह देखा था?4 मिनट
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14 अप्रैल, 2023
स्वतंत्र भारत का पहला बजट
सीएलपीआर ट्रस्ट
7 फ़रवरी, 2023
पॉडकास्ट
भारत के संविधान का निर्माण
पॉडकास्ट2 एपिसोड
संविधान संग्रहालय
1946 | बी.आर. अंबेडकर द्वारा संविधान सभा में मुस्लिम लीग की अनुपस्थिति पर टिप्पणी
ऑडियो
1947 | हंसा जीवराज मेहता का भारत के राष्ट्रीय ध्वज को प्रस्तुत करते हुए भाषण
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1946 | जयपाल सिंह मुंडा ने राजेंद्र प्रसाद को विधानसभा का अध्यक्ष चुने जाने पर बधाई दी
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घटनाक्रम
कॉनक्वेस्ट 2023 का समापन हुआ। गोवा यूनिवर्सिटी चैंपियन बनी
रामाय्या कॉलेज ऑफ लॉ
इवेंट रिपोर्ट
25 नवंबर2023
आईआईटी मद्रास ने कॉनक्वेस्ट 2023 का दक्षिण क्षेत्रीय चैंपियन जीता। अगला पड़ाव, राष्ट्रीय चैंपियनशिप
क्राइस्ट (मान्य विश्वविद्यालय)
इवेंट रिपोर्ट
27 अक्टूबर2023
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी ने नॉर्थ रीजन कॉनक्वेस्ट क्विज़ 2023 में बड़ी जीत हासिल की
राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, दिल्ली
इवेंट रिपोर्ट
21 अक्टूबर2023
नेशनल कॉन्स्टिट्यूशन सोसाइटी (एनसीएस) पूरे भारत में स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्र समूहों का एक कॉन्स्टिट्यूशनऑफइंडिया.नेट संचालित नेटवर्क है, जो एक जीवंत संविधान संस्कृति के निर्माण और उसे बनाए रखने की दिशा में काम करता है।
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भारत का संविधान बनाने में 2 साल, 11 महीने, और 18 दिन का समय लगा था. यह प्रक्रिया 9 दिसंबर 1946 को शुरू हुई थी और 26 नवंबर 1949 को खत्म हुई. इस अवधि में संविधान सभा ने 11 सत्र आयोजित किए. संविधान के कुछ प्रावधान 26 नवंबर 1949 को लागू हुए, जबकि इसका ज़्यादातर हिस्सा 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ. 26 जनवरी 1950 को संविधान लागू होने के साथ ही सुबह 10 बजकर 18 मिनट पर भारत गणराज्य बन गया था.
संविधान सभा के गठन के लिए चुनाव साल 1946 में कैबिनेट मिशन योजना के तहत हुए थे. संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई थी. इस बैठक में डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा को संविधान सभा का पहला अध्यक्ष (विधानसभा के अस्थायी अध्यक्ष) बनाया गया था. संविधान सभा में कुल 389 सदस्य थे, जिनमें से 299 सदस्यों ने संविधान के निर्माण में हिस्सा लिया. संविधान के मुख्य वास्तुकार डॉ. भीमराव अंबेडकर थे.